बेगम हजरत महल 1857 की आज़ादी की पहली लड़ाई की अकेली साहिब हिम्मत ख़ातून थीं जिन्हें अंग्रेज़ कभी पकड़ नहीं पाए।
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लिखा होगा हज़रत महल की लहद पर नसीबों की जली थी, फलक की सताई जब भी 1857 के ‘स्वतंत्रता संग्राम’ पर बात होगी। बेगम हज़रत महल का नाम बड़े एहतिराम से लिया जाएगा। बेगम हजरत महल 1857 की आज़ादी की पहली लड़ाई की अकेली साहिब हिम्मत ख़ातून थीं जिन्हें अंग्रेज़ कभी पकड़ नहीं पाए।

1857 में बेगम हज़रत महल ने सरफ़द्दौलाह, मौलवी अहमदउल्ला शाह फ़ैज़ाबादी, राजा जयलाल और मम्मू ख़ान के साथ मिलकर तवील अरसे तक अंग्रेज़ों से मुक़ाबला किया। बेगम हज़रत महल 1820 में फ़ैज़ाबाद में पैदा हुईं। उनका बचपन का नाम मुहम्मदी खातून था।
1857 की जंग की सबसे लंबी और सबसे प्रचंड लड़ाई लखनऊ में लड़ी गई थी। हज़रत महल ने ‘चिनाट की लड़ाई’ में विद्रोही सेना की जीत के बाद 5 जून, 1857 को अपने बेटे बिरजिस क़द्र को अवध का ताज पहनाया और मार्च 1858 तक हज़रत महल ने लखनऊ में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोहियों का नेतृत्व किया।
अंग्रेज़ों को लखनऊ रेजिडेंसी में शरण लेने के लिए विवश होना पड़ा। इस बीच 3 महीनों तक 37 एकड़ में फैले रेज़ीडेंसी की घेराबंदी की गई। 3 महीने की घेराबंदी के दौरान 3000 में से आधे अंग्रेज़ या तो फ़रार हो गए या मारे गए। रेज़िडेन्सी 1857 से पहले और 1858 में।
बेगम हज़रत महल के सैनिकों ने आलमबाग महल पर नौ बार हमला किया। लेकिन वो अंग्रेज़ों को वहाँ से हटा पाने या कानपुर से उनकी सप्लाई लाइन काट पाने में नाकाम रहे। ऐसे ही एक हमले में बेगम हज़रत महल अपने हाथी पर बैठ कर ख़ुद लड़ाई में शामिल हुईं थीं।
अंग्रेज़ों का मुकाबला करने के सारे फ़ैसले बेगम हज़रत महल के “तारा कोठी” के दरबार में लिए जाते थे। जब भी दरबार लगता था, सरकार के सभी सदस्य, हिन्दू और मुसलमान उसमें भाग लिया करते थे। नेपाल के जंग बहादुर राणा ने बेगम हज़रत महल, बेटे और बचे हुए समर्थकों को नेपाल में पनाह दी
बेगम हज़रत महल शाने सब्र के साथ 20 साल पराये मुल्क में गुज़ार कर 7 अप्रैल 1879 ई. को इस जहाने फ़ानी से रुख़सत हुईं। उनका मज़ार काठमांडू, नेपाल में वाक़े है। बेगम के इंतिक़ाल की खबर देते हुए नेपाल के ब्रिटिश रेज़िडेंट ने यह चिट्ठी फ़ारन डिपार्टमेंट सेक्रेटेरी को लिखी थी।