पिछले 4 दिनों से, हर दिन हम भारत के जंग-ए-आज़ादी में मुसलमानों के रोल को याद कर रहे हैं। इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए आज हम झारखंड के अज़ीम मुजाहिद शहीद शेख़ भिखारी को याद करते हैं। शहादत के वक्त, शेख़ भिखारी की उम्र सिर्फ़ 27 साल थी
1857 की जंग-ए-आज़ादी में शेख भिखारी ने झारखंड के मुसलमानों और हिंदुओं के साथ साथ संथाल आदिवासियों का भी नेतृत्व किया। उनकी बहादुरी और बेबाक़ी ने अंग्रेज़ी हुकूमत के दिलों में ख़ौफ़ पैदा कर दिया था। इसी वजह से अंग्रेजों ने शेख भिखारी को फांसी पर लटका कर मार दिया।
शेख भिखारी का जन्म 1831 में खुदिया-लोटवा गांव झारखंड में एक बुनकर अंसारी परिवार में हुआ था। उन्होंने टिकैत उमराव सिंह की सेना का नेतृत्व किया और रामगढ़ और डोरंडा के बाग़ी सिपाहियों के साथ मिलकर अंग्रेजों की जेलों से कैदियों को रिहा कराया और उनके दफ़्तरों को जला दिया।
उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ़ संथालों को जागरूक करने की कोशिश की थी लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। अंग्रेज़ों की फौज चुटूपालू की पहाड़ी के रास्ते से रांची के पलटुवार पर चढ़ने की कोशिश करने लगे तो उन्हें रोकने के लिए शेख भिखारी और टिकैत उमराव चुटूपालू की घाटी पर पहुँच गए।
भिखारी और टिकैत उमराव ने ना सिर्फ अंग्रेज़ों के रास्ते को रोका बल्कि उन्होंने चुटूपालू की पहाड़ी की तरफ वाली सड़क के पुल को तोड़ डाला, पेड़ों को काटकर सड़क पर डाल दिया और आखिर में जब गोलियां समाप्त हो गई तब ऊपर से पत्थर लुढकाना शुरू कर दिया। इससे काफी अंग्रेजी सैनिक मारे गए।
चुटूपालू की पहाड़ी के दूसरे रास्ते से शेख भिखारी और उमराव सिंह को 6 जनवरी 1858 को गिरफ़्तार कर लिया गया। 8 जनवरी 1858 को शेख भिखारी और उमराव सिंह को चुटूपालू की पहाड़ी के बरगद के पेड़ से लटका कर फांसी दे दी गई। आज भी उस पेड़ को शहीद स्थल के रूप में देखा जाता है